विजय-ध्वजा
वो चला तो वो भी चले चली, वो रुका तो वो भी ठहर गयी..
वो मुड़ा तो उसने मोड़ चुना, वो गिरा तो पूरी सिहर गयी..
क्या बात है 'औरत' होना भी, दुनिया की सारी ज़िंदादिली सा
जब मन हो, बन गयी पतंग और विजय-ध्वजा सी फहर गयी..
वो डोर खींचकर उड़ा रहा, वो मौज मजे में उडी चली..
वो उसको अपनी शान समझ..औरों से कटने बचा रहा..
वो हिफ़ाज़तों पर फख्र किये, उसके इशारों पर दौड़ी चली..
वो उसको अपनी 'चीज़' समझ कीमत का शोर मचा रहा...
वो 'पतंग' है उसकी, सुन्दर है, पतली है और रूपहली भी
देखो कितना खुशकिस्मत हूँ मैं, यार-दोस्तों में सुना रहा
एक दिन डोर कटी पतंग की तब उसने छज्जे से नीचे झाँका
कौन लूट ले गया पतंग..सब परिप्रेक्ष्य बराबर से आँका
तब पीछे से एक हाथ बढ़ा, वो घबराकर पलट गया, देखा
पीछे 'पतंग' खड़ी थी, कैसे लांघ गयी लक्ष्मण रेखा...
डोर तोड़कर भी खड़ी है पगली दूर नहीं जा पाई है..
पूछा उसके पौरुष ने ये क्या सनक लगाईं है....
बाँध रखा है तुमको मैंने, कैसे बंधन खोलोगी...
खड़ी खड़ी क्या देख रही हो, कुछ पूछा है, कुछ बोलोगी..?
ज़ुल्फ़ झटक, कुछ कदम पटक..वो मुस्काई और बोली
ये बंधन बंधा हुआ है क्युकी मैंने गाँठ नहीं खोली..
चालाकी भरी रसोई में जो खुदगर्जी की थाली पर
तुम धोखे परोसा करते हो, मैं धोखे खाती आई हूँ
मैं जीत न लूँ दुनिया एक दिन, और बन न जाओ बंधक तुम
मुझ पर बाँध बनाने खातिर षड़यंत्र रचाते आये हो
हे 'पुरुष' तुम्हारी बुद्धिमत्ता का वाक़ई कोई जवाब नहीं
तुम रस्म बनाते आये हो, मैं रस्म निभाते आई हूँ
मैं शीतल हूँ, ममतामयी हूँ, कोमल हूँ और हृदयवान भी
ये बातें ही तुमको लगता है कमजोर बना देंगी मुझको
तुम प्रेम के झूठे इंद्रजाल पर मुझे झुकाने आये हो
तुम प्यार जताने आये हो, मैं प्यार बनाते आई हूँ
अरे वही पुरुष तो है ये, हिम्मत करके जैसे तैसे
पूंछ रहा है एक औरत से, मैं याचक तुम दाता कैसे
वो रस्मो की ज़रदोजी में लिपटी, इठलाई..इठलाकर बोली
घुटनों पड़कर, हाथ बढ़ाकर, अरसो से कई बरसो से
तुम साथ मांगते आये हो, मैं साथ निभाते आई हूँ...