Friday 7 February 2014

My MasterPiece- 2 continued after शीतल शरद समीर

ग्रीष्मकाल की रजनी कंहू या शशिर ऋतू का वासर तुमको
श्वास कंहू, विश्वास कंहू, दिवा कंहू या दिवाकर तुमको 
तन में, मन में और जन जन में 
बंजर भूमि में, उपवन में
बियावान वन में, जीवन में
क्यों स्वप्न नवल बो जाते हो?

आचार, विचार मंडित छवि पर, कुछ सदाचार के रत्न जटित
आकार विकार हीन वसुधा की निराकार शोभा वर्णित
गीतों की सरगम में हरदम
वर्षा की रिम झिम में छम छम
दीपक की टिम टिम में भी कैसे
नग सम हिम बन जाते हो?

कभी चन्द्र सा, कभी चन्दन सा, कभी चंद्रभान सा प्रकाश गिरा
बन सावन क्षण क्षण में कैसे कर जाते हो धरा को हरा भरा
अम्बु से, अवनि से, अम्बर से
सर, सागर से या सरोवर से
घन से, घटा से या निर्झर से
भर सुधा घट कहाँ से लाते हो?

सुमन सामान पुलकित मुख पर, जाने अनजाने रहस्य रमा
वाणी की शुचिता भी ऐसी, ज्यों जिव्हा पर हो मधु जमा
नभचर भांति वन विचरण में
निशिचर भांति जागरण में
देव, मनुज, गन्धर्व, निशाचर का
मधुर मिलन बन जाते हो |

हरित पर्ण के धानी वर्ण में, प्रकृति का जो लावण्य निहित
ऋतू, ऋचा, रिद्धिमा पूजक सम, प्रसून, प्रसाद और प्राञ्जल्य सहित
बाग़ हुए, बागान हुए
बन गुंजन गुंजायमान हुए
कर्ण प्रिय सा गान हुए तुम
हर कलरव में बस जाते हो ||

No comments:

Post a Comment